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Monday 14 February 2011

भोजपुर नामक स्थान पर भोजेश्‍वर के नाम से ख्यात शिव मंदिर है। इसे पूरब का सोमनाथ भी कहते हैं।


पूरब का सोमनाथ है भोजपुर का भोजेश्‍वर शिव मंदिर


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सतीश सिंह

कला और संस्कृति के दृष्टिकोण से मध्यप्रदेश की धरती प्राचीन काल से ही उर्वर रही है। स्थापत्य कला में भी मध्यप्रदेश का स्थान भारत में अव्वल है। स्थापत्य कला का ही एक बेजोड़ नमूना मध्यप्रदेश की राजधानी और झीलों की नगरी भोपाल से तकरीबन 28 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित भोजपुर नामक स्थान पर भोजेश्‍वर के नाम से ख्यात शिव मंदिर है। इसे पूरब का सोमनाथ भी कहते हैं।

21 वीं सदी में भले ही भोजपुर को गिने-चुने लोग जानते हैं, किन्तु मध्यकाल में इस नगर की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। मध्यकाल के आरंभ में धार के महान राजा भोज ने (1010-53) में भोजपुर नगर की स्थापना की थी। इस नगर को ख्यातलब्ध बनाने में मुख्य योगदान भोजपुर के भोजेश्‍वर शिव मंदिर और यहाँ पर बने विशाल झील का था। शिव मंदिर अपने अधूरेपन के साथ आज भी मौजूद है, लेकिन झील सूख चुकी है।

अपनी वास्तु योजना में यह मंदिर वर्गाकार है जिसका बाह्य विस्तार लगभग 66 फीट है। हालांकि इसका शिखर अपूर्ण है, फिर भी यह मंदिर चार स्तंभों के सहारे खड़ा है। ऊँचाई की ओर बढ़ने के क्रम में इसका आकार सूंडाकार हो गया है। तीन भागों में विभाजित निचला हिस्सा अष्टभुजाकार है, जिसमें 2.12 फीट वाले फलक हैं और उसमें से पुनश्‍च: 24 फलक वाली प्रशाखाएँ निकलती हैं। शिव मंदिर के प्रवेश द्वार का निचला हिस्सा अलंकार रहित है, पर उसके दोनों पार्श्‍वों में स्थापित दो सुदंर प्रतिमाएँ खुद-ब-खुद ध्यान आकृष्ट करती हैं। इसके तीनों तरफ उपरिकाएँ हैं जिन्हें तराशे गए 4 स्तंभ सहारा दिए हुए हैं।

शिवलिंग की ऊँचाई अद्भूत और आकर्षक है। 7.5 फीट की ऊँचाई तथा 17.8 फीट की परिधि वाला यह शिवलिंग स्थापत्य कला का बेमिसाल नमूना है। इस शिवलिंग को वर्गाकार एवं विस्तृत फलक वाले चबूतरे पर त्रिस्तरीय चूने के पाषाण खंडों पर स्थापित किया गया है।

आश्‍चर्यजनक रुप से इस मंदिर का शिखर कभी भी पूर्ण नहीं हो सका। अपितु इसको पूरा करने के लिए जो प्रयास किये गए, उसके अवशेष आज भी बड़े-बड़े पत्थर ले जाने के लिए बने सोपानों की शक्ल में हैं।

भोजेश्‍वर मंदिर के पास ही एक अधूरा जैन मंदिर है। मंदिर के अंदर तीर्थकरों की 3 प्रतिमाएँ हैं। महावीर स्वामी की मूर्ति तकरीबन 20 फीट ऊँची है। अन्य दोनों मूर्तियाँ पार्श्‍वनाथ की हैं। इसकी वास्तुकला आयताकार है। इतिहासकारों के अनुसार इसके निर्माण की अवधि भी भोजेश्‍वर मंदिर के समय की है।

भोजेश्‍वर मंदिर के पश्चिम में कभी एक बहुत बड़ा झील हुआ करती थी और साथ में उसपर एक बांध भी बना हुआ था, पर अब सिर्फ उसके अवशेष यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। बाँध का निर्माण बुद्धिमतापूर्वक किया गया था। दो तरफ से पहाड़ियों से घिरी झील को अन्य दो तरफों से बालुकाइम के विशाल पाषाण खंडों की मदद से भर दिया गया था। ये पाषाण खंड 4 फीट लंबे और 2.5 फीट मोटे थे। छोटा बाँध लगभग 44 फीट ऊँचा था और उसका आधारतल तगभग 300 फीट चौड़ा तथा बड़ा बाँध 24 फीट ऊँचा और ऊपरी सतह पर 100 फीट चौड़ा था। उल्लेखनीय है कि यह बाँध तकरीबन 250 मील के जल प्रसार को रोके हुए था।

इस झील को होशंगशाह ने (1405-34) में नष्ट कर दिया। गौण्ड किंवदंती के अनुसार उसकी फौज को इस बाँध को काटने में 3 महीना का समय लग गया था। कहा जाता है कि इस अपार जलराशि के समाप्त हो जाने के कारण मालवा के जलवायु में परिवर्तन आ गया था।

कहने के लिए तो भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा यह मंदिर संरक्षित है, किन्तु विभाग के द्वारा इसके जीर्णोद्धार के लिए अभी तक कोई प्रयास नहीं किया गया है। यह सचमुच दुखद स्थिति है।

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